आपातकाल: स्वर्णिम लोकतंत्र का काला अध्याय
भारत में 25 जून 1975 से लागू आपातकाल लोकतंत्र का काला अध्याय था, जब इंदिरा गांधी ने राजनीतिक स्वार्थ में संवैधानिक मूल्यों और नागरिक स्वतंत्रताओं का दमन किया। आज यह इतिहास लोकतांत्रिक चेतना और संविधान की रक्षा की चेतावनी देता है।

धर्मेन्द्र सिंह लोधी
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और संविधान लोकतंत्र का रक्षक, क्योंकि संविधान लोकतांत्रिक मूल्यों, मौलिक अधिकारों और नागरिक स्वतंत्रता की आधारशिला है, किंतु 25 जून 1975 से 31 मार्च 1977 तक का कालखंड ऐसा था, जब देश में सत्ताधारी नेताओं द्वारा इन सभी मूल्यों का गला घोंटा गया। संवैधानिक शब्दावली में इस कालखंड को आपातकाल कहा गया परंतु इतिहास में इसे ‘स्वर्णिम लोकतंत्र के काले अध्याय’ के रूप में जाना जाता है। इस अवधि में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए न केवल संवैधानिक संस्थाओं का दुरुपयोग किया, बल्कि नागरिक स्वतंत्रता और मौलिक अधिकारों को स्थगित करके भारतीय लोकतंत्र की आत्मा पर भी कुठाराघात किया।
1971 में श्रीमती इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ के नारे पर भारी बहुमत से चुनाव अवश्य जीता, लेकिन 1975 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने रायबरेली से उनके निर्वाचन अवैध घोषित कर दिया और 6 वर्षों तक चुनाव लड़ने के लिये भी अयोग्य ठहरा दिया। उच्च न्यायालय के इस निर्णय ने श्रीमती इंदिरा गांधी के पद को खतरे में डाल दिया। अपनी सत्ता को बचाने की लाचारी और राजनीतिक वर्चस्व की भूख ने लोकतांत्रिक मूल्यों को ध्वस्त करते हुए श्रीमती इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लागू कर दिया। आपातकाल का यह निर्णय किसी राष्ट्रीय संकट के कारण नहीं बल्कि श्रीमती गांधी की सत्ता लोलुपता से प्रेरित था। संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आंतरिक अशांति का बहाना बनाकर उन्होंने देश को आपातकाल के अंधकार में धकेल दिया।
संवैधानिक प्रावधानों के तहत देश में आपातकाल मंत्रिमंडल की अनुशंसा पर राष्ट्रपति द्वारा लागू किया जाना चाहिए, परंतु श्रीमती गांधी ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने 26 जून 1975 को सुबह 6:00 केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक बुलाकर मंत्रियों को बताया कि मध्य रात्रि के बाद से देश में आपातकाल लगा दिया गया है। कुल मिलाकर देश में आपातकाल लागू करने के बाद और देश को यह सूचना देने से पहले श्रीमती गांधी ने मंत्रिमंडल की महज औपचारिक सहमति प्राप्त की, जो उनकी तानाशाही को दर्शाता है। आपातकाल लागू करते ही इंदिरा गांधी की तानाशाही शुरू हो गई। उन्होंने देश में नागरिक स्वतंत्रता और मौलिक अधिकारों को स्थगित कर दिया। श्रीमती गांधी द्वारा राष्ट्रवादी विचारधारा को कुचलने का कार्य किया। लोकतंत्र को बचाने के लिये प्रतिरोध करने वालों के विरूद्ध आपराधिक प्रकरण दर्ज किये गये। जनसंघ और अन्य विपक्षी दलों से जुड़े नेताओं को गिरफ्तार कर ‘मीसा’ अर्थात आंतरिक सुरक्षा कानून के तहत जेल में डाल दिया गया जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेई और लालकृष्ण आडवाणी जैसे अनेक वरिष्ठ नेताओं को जेल में बंद कर दिया गया। एक अनुमान के मुताबिक बिना सुनवाई के लगभग 01 लाख 40 हजार से अधिक लोगों को जेल में बंद कर दिया गया। लोकतंत्र की सबसे जरूरी विशेषता ‘वैकल्पिक विचार’ को श्रीमती इंदिरा गांधी ने राजद्रोह में बदल दिया।
आपातकाल में इंदिरा गांधी ने न्यायपालिका जो लोकतंत्र की रक्षा की अंतिम संस्था है, उसे भी झुकने पर मजबूर कर दिया। न्यायपालिका की स्वायत्तता को छीनने का प्रयास किया गया। सत्ता की आलोचना करने वाले अखबारों को सेंसर कर दिया गया। अनेक समाचार पत्रों के छपने पर रोक लगा दी गई। यह प्रेस की स्वतंत्रता का सबसे भयावह क्षण था। संजय गांधी के मार्गदर्शन में चलाए जाने वाला ‘नसबंदी अभियान’ सरकारी आतंक का प्रतीक बन गया। व्यक्तिगत सत्ता स्थायित्व के लिए संविधान में प्रजातंत्र विरोधी संशोधन किए गए। न्यायपालिका की शक्ति को सीमित करने की कोशिश की गई। यह वास्तव में भारत के लोकतांत्रिक संतुलन को बिगाड़ने की एक बड़ी साजिश थी । आपातकाल के दौरान कांग्रेस ने ‘इंदिरा इज इंण्डिया एण्ड इंण्डिया इज इंदिरा’ जैसे नारों को प्रसारित किया जो इंदिरा गांधी की निरंकुशता, तानाशाही और संविधान विरोधी मानसिकता को दर्शाते हैं। आपातकाल के दौरान प्रसिद्ध कवि जी.एस. शिवरूद्रप्पा ने ‘इस देश में’ नामक एक कविता लिखी-
इसदेश में
वीर पूजा ,परिवार पूजा
खत्म होनी चाहिए,
लेकिन मेरी कुलदेवी की तरफ कोई आंख न उठाए,
इसदेश में
हर एक को अपना मुंह बंद रखना चाहिए
लेकिन उन्हें मेरे शब्द सुनने के लिए
अपने कान खुले रखना चाहिए
यह कविता देश में इंदिरा गांधी की तानाशाही और लोकतांत्रिक एवं संवैधानिक मूल्यों पर किए गए वज्रपात को प्रदर्शित करती है।
आजकल कुछ विपक्षी नेता संविधान की प्रतियां हाथों में लेकर संसद से सड़कों तक ‘संविधान खतरे में है’ और ‘लोकतंत्र खतरे में है’ के नारे लगा रहे हैं। राजनीतिक स्वार्थ के लिए संविधान और लोकतंत्र को खतरे में बताने वाले इन नेताओं को थोड़ा अतीत में झांकना चाहिए। राहुल गांधी को पीछे जाकर अपनी दादी इंदिरा के काले कारनामों को देखना चाहिए, कि किस तरह उनकी सत्ता की लालसा ने देश में लोकतांत्रिक और संवैधानिक मूल्यों की हत्या की थी।
प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में आज देश विकास और प्रगति के नए आयाम को स्पर्श कर रहा है। दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। समावेशी विकास में लोकतंत्र की पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति तक विकास को प्रवाहित किया है। लोकतांत्रिक मूल्यों को जन-जन तक पहुंचाने के लिए मोदी सरकार द्वारा जल जीवन मिशन, प्रधानमंत्री आवास, उज्ज्वला और जनधन जैसी योजनाओं को धरातल पर लागू किया गया है। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए संवैधानिक प्रावधानों को स्थगित कर दिया था, वहीं प्रधानमंत्री मोदी ने संवैधानिक मूल्यों और प्रावधानों के अनुक्रम में धारा 370 को हटाने, जीएसटी लागू करने जैसे राष्ट्रीय हित के कार्यों को मूल रूप प्रदान किया है। आपातकाल लोकतांत्रिक इतिहास का एक ऐसा काला अध्याय है, जो हमें चेतावनी देता है, कि सत्ता का केंद्रीकरण किस हद तक लोक स्वतंत्रता को कुचल सकता है।
आपातकाल इस बात की चेतावनी है, कि जब सत्ता की भूख विवेक पर हावी हो जाती है, तब लोकतंत्र खोखला हो जाता है। इंदिरा गांधी द्वारा लागू किया गया आपातकाल उनके राजनीतिक स्वार्थ और आत्ममुग्धता का प्रतीक था। वह एक समय था जब श्रीमती इंदिरा गांधी ने देश की आत्मा को कुचल कर सत्ता की कुर्सी को बचाया था। इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू करके देश की जनता पर जो अत्याचार किया, उसका उत्तर जनता ने 1977 के चुनाव में कांग्रेस को सत्ता से बाहर करके दिया। जिससे यह स्पष्ट है कि आपातकाल भारत के स्वर्णिम लोकतंत्र में न केवल एक काला अध्याय है, बल्कि सत्ता के मद में चूर श्रीमती इंदिरा गांधी की तानाशाही का भी प्रतीक है।
(लेखक संस्कृति, पर्यटन, धार्मिक न्यास एवं धर्मस्व राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) है)